खेत में उपज न किसान करता है, न रसायनिक खाद और न ही कीटनाशक
मैंने पिछले सप्ताह अपने लेख में यह बताया था कि जैविक कृषि के लिए सबसे आवश्यक तत्व हैं, खेत की मिट्टी में स्वाभाविक रूप से पाये जाने वाली करोड़ों-अरबों किटाणु जो कि मिटटी को भुरभुरा बनाये रखते हैं जिससे पौधों के जड़ों तक जल और आक्सीजन आसानी से प्राप्त हो जाता है, जिससे वायु में उपस्थित नाइट्रोजन, फासफोरस, पोटाश, जिंक, कैल्शियम, मैगनीशियम, आयरन, सल्फर आदि स्वाभाविक रूप से पौधे की जड़ों तक पहुंचते रहते हैं और सभी आवश्यक पौष्टिक तत्वों की पूर्ति करते रहते हैं।
इन सूक्ष्म कीटाणुओं का मुख्य भोजन होता है गाय के गोबर में मौजूद सैकड़ों तरह के पौष्टिक पदार्थ और कार्बन जो कि मित्र कीटाणुओं को ज्यादा सक्रियता से कार्य करने की शक्ति प्रदान करते हैं।
ऐसी बात नहीं है कि मिट्टी में शत्रु कीटाणु नहीं होते हैं। शत्रु कीटाणु भी होते हैं और अच्छी संख्या में होते हैं लेकिन, मित्र कीटाणुओं से काफी कम होते हैं। पिछले 70 वर्षों में रसायनिक उर्वरकों और किटनाशकों के प्रयोग से भारी संख्या में जैविक कीटाणु मारे गये हैं जिसमें शत्रु और मित्र दोनों तरह के कीटाणु मारे गये हैं।
तो इस तरह के आक्रमण में त्रस्त होकर बचे खुचे मित्र जीवाणु 10 से 15 फीट नीचे जाकर शरणार्थी की तरह अपना जीवन यापन कर रहे हैं और बहुत जरूरत पड़ने पर ही आक्सीजन लेने के लिए पृथ्वी के सतह पर आते हैं। लेकिन, उन्हें जब यह पता चलता है कि अब इस खेत में कुछ दिनों से रसायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का प्रयोग नहीं हो रहा तब वे धीरे-धीरे मिट्टी की सतह पर आकर अपना सामान्य काम शुरू करते हैं। इसमें ज्यादातर सूक्ष्म जीवाणु तो इतने सूक्ष्म होते हैं जो माइक्रोस्कोप से भी नहीं देखे जा सकते हैं। लेकिन, कुछ जीवाणु या कीटाणु ऐसे है जिन्हें आप देख भी सकते हैं। इनमें देशी केचुआं जिसे देहाती भाषा में चेरा भी कहते है, मुख्य है।
ये केचुएं जमीन की सतह से लगभग 15 फीट तक नीचे जा सकते हैं और ये जब भी नीचे जाते हैं तो अपने मार्ग की मिट्टी और जमीन में उपलब्ध खनिजों को खाते हुए अन्दर जाते हैं। ये जिस रास्ते से जाते हैं उस रास्ते से कभी वापस नहीं आते I बल्कि, एक नया रास्ता बनाकर ऊपर आते हैं। ऊपर आकर ये अपनी विष्ठा करते हैं जो अपने आप में अनेक प्रकार के खनिजों से भरपूर उर्वरक होता है। फिर भरपूर आक्सीजन ग्रहण करते है और एक नया रास्ता बनाते हुए नीचे चले जाते हैं। ये सामान्यतः अपना कार्य सूर्य के प्रकाश में नहीं करते हैं। कारण यह है कि यदि सूर्य के प्रकाश में ये कभी भी जमीन के ऊपर दिखेंगे तो वातावरण में उड़ते पक्षी या जमीं पर रेंगते छोटे जीव उसे मारकर खा जायेंगे, ऐसा डर बना रहता है। अतः ज्यादातर ये अपना कार्य सूर्यास्त से सूर्योदय तक ही करते हैं। किन्तु, ये जो रास्ता बनाते हुए नीचे जाते हैं या ऊपर आते हैं उस क्रम में इनके शारीर का जमीन से जो धर्षण करना होता है, उस क्रम में अपने शरीर के बाहरी भाग से जो पसीना निकालते हैं वह एक तरह का अमीनों एसिड होता है जो इनके द्वारा बनाये गये रास्तों को मजबूत बना देता है जिससे बरसात का पानी इन केचुओं के द्वारा बनाये गये छोटी-छोटी हजारों –लाखों नालियों में टपक कर जमीन के अन्दर चला जाता है जिससे कि जमीन का जलस्तर बढ़ जाता है और बरसात के पानी से खेत का नुकसान भी नहीं करताI मिटटी के कटाव आदि की समस्याएं कम हो जाती है।
एक केचुएं की जिन्दगी लगभग एक वर्ष की ही होती हैI किन्तु, यदि सही वातावरण मिले और रसायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों का प्रयोग खेत में न हो तो ये पूरी एक वर्ष की जिन्दगी में लगभग एक लाख बच्चे पैदा कर सकते हैं।